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मुझ पे हर ज़ुल्म रवा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ - अनीस अंसारी कविता - Darsaal

मुझ पे हर ज़ुल्म रवा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

मुझ पे हर ज़ुल्म रवा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

मुझ को अपने से जुदा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

मैं कि मस्लूब हूँ दे मुझ को भी ज़ालिम का ख़िताब

सुन्नत-ए-ईसा जिला रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

मेरे घर में है जो ग़ासिब तो निकालूँ कि नहीं

मुझ पे इल्ज़ाम-ए-जफ़ा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

तेरे मक़्तूल पे सरगर्म हैं सारे मुंसिफ़

मेरी लाशों को उठा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

गर्म आहों पे है इल्ज़ाम कि हूँ शो'ला-नफ़स

मुझ को फूँकों से बुझा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

क्यूँ सहीफ़ों में लिखा है कि मिलेगा इंसाफ़

लफ़्ज़-ओ-मानी न जुदा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

तेरी ज़म्बील में हर चाल पुरानी है रक़ीब

मुझ को अपनों से लड़ा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

अपने विर्से से तिरा क़ब्ज़ा हटाना है हरीस

नाम दहशत कि बला रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

मैं ने आँखों में जला रखा है आज़ादी का तेल

मत अंधेरों से डरा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

गर मिरा हक़ न मिलेगा तो बिगड़ जाएगी बात

अपने पहलू से लगा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

कर्बला रख के हथेली पे चला हूँ घर से

बैअ'त-ए-ज़ुल्म हटा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

जब ज़मीनों में जड़ें हैं तो किधर जाऊँगा

मेरी शाख़ें न कटा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

अद्ल की मिट्टी में उगते नहीं दहशत के बबूल

अपनी मिट्टी को सफ़ा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

बंद आँखों से सियह-रू नज़र आएगा 'अनीस'

चश्म-ए-बीना को खुला रख कि मैं जो हूँ सो हूँ

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