इस शहर के लोग अजीब से हैं अब सब ही तुम्हारे असीर हुए
इस शहर के लोग अजीब से हैं अब सब ही तुम्हारे असीर हुए
जब जाँ पे बरसते थे पत्थर उस वक़्त हमीं दिल-गीर हुए
कुछ लोग तुम्हारी आँखों से करते हैं तलब हीरे मोती
हम सहरा सहरा डूब गए इक आन में जोगी फ़क़ीर हुए
तुम दर्द की लज़्ज़त क्या जानो कब तुम ने चखे हैं ज़हर-ए-सुबू
हम अपने वजूद के शाहिद हैं संगसार हुए शमशीर हुए
ये पहरों पहरों सोच-नगर रातों रातों बे-ख़्वाब लहर
फिर कैसे कटेगा धूप-सफ़र जब पीर लुटी जागीर हुए
इक उम्र गुज़ारी है यूँ ही सायों के तआ'क़ुब में हम ने
टुक बैठ गए फिर चल निकले हँस बोल लिए दिल-गीर हुए
कुछ शहर तुम्हारा तंग भी था कुछ तुम भी थे कमज़ोर ज़रा
पत्थर की निगाहों के डर से तुम अपने ही घर में असीर हुए
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