शीशा ही चाहिए न मय-ए-अर्ग़वाँ मुझे
शीशा ही चाहिए न मय-ए-अर्ग़वाँ मुझे
बे-माँगे जो मिले वही काफ़ी है हाँ मुझे
ऐ शोख़ी-ए-निगाह ज़रा एहतियात रख
इस बज़्म में है पास-ए-हदीस-ए-बुताँ मुझे
यारब मिरे गुनाह क्या और एहतिसाब क्या
कुछ दी नहीं है ख़िज़्र सी उम्र-ए-रवाँ मुझे
चुनता था राह-ए-ज़ीस्त के ख़ारों को मैं हनूज़
है सब अबस अजल ने कहा ना-गहाँ मुझे
लगता है इक हुजूम में गुम है मिरा वजूद
डसती हैं फिर भी किस लिए तन्हाइयाँ मुझे
उन के लिए हैं अतलस-ओ-कमख़्वाब के सरीर
तन ढाँकने को काफ़ी हैं कुछ धज्जियाँ मुझे
क्या क्या सितम ज़माने के मैं सह गया 'अनीस'
मरने के बा'द याद करोगे मियाँ मुझे
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