तिश्नगी
उठो हयात पे ख़ंजर की धार गुज़री है
लहू की बूँदें टपकती हैं ज़ख़्मी रूहों से
सियाह रौशनी में और जाग उठी वहशत
लहू में घुल गई तल्ख़ी दिलों पे नक़्श बने
ये साँस सीने में घटती हुई मी लगती है
ये रोज़-ओ-शब का तफ़क्कुर ये सारी उम्र का घुन
हयात ऊब गई अद्ल के अँधेरों से
कहाँ तक अद्ल की ज़ंजीर खींचते जाएँ
सदाएँ लौटती हैं बाम-ओ-दर से टकरा कर
इनान-ए-मुल्क पड़ी है हिनाई हाथों में
कोई तो हक़ की किरन फूटे ज़ुल्म की शब में
निगाह-ए-अम्न-ओ-अमाँ तिश्ना-बार है अब तक
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