उफ़ वो तूफ़ान-ए-शबाब आह वो सीना तेरा
जिसे हर साँस में दब दब के उभरता देखा
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देर लगी आने में तुम को शुक्र है फिर भी आए तो
जिगर में टीस लब हँसने पे मजबूर
दिल पर चोट पड़ी है तब तो आह लबों तक आई है
झूट है सब तारीख़ हमेशा अपने को दुहराती है
कोई अदा-शनास-ए-मोहब्बत हमें बताए
मुझे इल्ज़ाम न दे तर्क-ए-शकेबाई का
चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक
हँसती आँखें हँसता चेहरा इक मजबूर बहाना है
क्या कहिए रू-ए-हुस्न पे आलम नक़ाब का
जहाँ अहद-ए-तमन्ना ख़त्म हो जाए