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तुम अगर चाहो तो - अमजद नजमी कविता - Darsaal

तुम अगर चाहो तो

इस से पहले कि शब-ए-माह के ठंडे साए

गर्मी-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से पिघल कर रह जाएँ

इस से पहले कि सितारों पे उजालों की घटा छा जाए

इस से पहले कि ये शबनम के गुहर-हा-ए-लतीफ़

नज़्र-ए-ख़ुर्शीद-ए-ज़र-अफ़्शाँ हो जाएँ

इस से पहले कि चराग़ों के चमकते मोती

सदफ़-ए-नूर-ए-सहर में खो जाएँ

इस से पहले कि शब-ए-हिज्र का आज़ार हो कुछ और सिवा

इस से पहले कि ख़ुशी ग़म से बदल कर रह जाए

तुम अगर चाहो तो आ सकते हो

जावेदाँ ज़ीस्त के लम्हों को बना सकते हो

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