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तबस्सुम - अमजद नजमी कविता - Darsaal

तबस्सुम

चमक हीरे से बढ़ कर ऐ तबस्सुम तुझ में पिन्हाँ है

उन्हीं होंटों पे ज़ौ बिखरा तू जिन होंटों को शायाँ है

मिसाल-ए-बर्क़ तू गिरता है जान-ए-ना-शकेबा पर

गिरी थी जिस तरह बिजली कलीम-ए-तूर-ए-सीना पर

न होगा ला'ल कोई तेरी क़ीमत का बदख़्शाँ में

तू ही इक मिस्रा-ए-बरजस्ता है क़ुदरत के दीवाँ में

जहाँ की दौलतों में कोई भी दौलत नहीं ऐसी

फ़लक पर कब चमकती है सितारों की जबीं ऐसी

ग़म-ए-दुनिया का शाकी जब हुआ हक़ से दिल-ए-आदम

तुझे दे कर अता फ़रमा दिया हर ज़ख़्म का मरहम

हुआ जाता है पज़मुर्दा दिल-ए-आवारा सीने में

तो टपका क़तरा-ए-आब-ए-बक़ा इस आबगीने में

झलक पल-भर की है लेकिन असर है दाइमी तेरा

सर-ए-गुलज़ार दम भरती है गोया हर कली तेरा

लब-ए-जाँ-बख़्श पर कुछ कुछ नुमायाँ हो के रह जा फिर

अधूरी रह गई है दास्तान-ए-इश्क़ कह जा फिर

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