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अफ़्कार-ए-परेशाँ - अमजद नजमी कविता - Darsaal

अफ़्कार-ए-परेशाँ

ये उरूज-ए-दौलत-ए-क़ैसरी ये शिकोह-ए-ताज-ए-सिकंदरी

कि यहाँ तो ख़ून-ए-ग़रीब से है तपिश में नब्ज़-ए-तवंगरी

वही ख़्वाजगी वही ख़ुसरवी वही रंग-ओ-नस्ल की बरतरी

यही है तमद्दुन-ए-मग़रिबी कोई मुझ से सुन ले खरी खरी

जो है तर्ज़-ए-बादा-कशाँ यही जो है मय-कदे का समाँ यही

ख़ुम-ओ-शीशा में मय-ए-लाला-गूँ यूँही सड़ रहेगी धरी धरी

ये ज़माना कैसा बदल गया न वो वलवले न वो हौसले

किसी वक़्त थे जो सनम-शिकन वो हैं आज वक़्फ़-ए-सनम-गिरी

मिरे दिल पे बर्क़ सी गिर पड़ी ये कहा जो मुर्ग़-ए-असीर ने

मिरे आशियाने की शाख़ भी कभी थी चमन में हरी-भरी

वही आह अस्ल में आह है वही नाला अस्ल में नाला है

कि इधर जो दिल से निकल पड़े तो उधर फ़लक में हो थरथरी

ये सितम-ज़रीफ़ी-ए-अहद-ए-नौ भी है 'नजमी' कितनी अजीब सी

कि जो गुमरही में है मुब्तला है उसी को दा'वा-ए-रहबरी

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