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सुब्ह-दम आया तो क्या हंगाम-ए-शाम आया तो क्या - अमजद नजमी कविता - Darsaal

सुब्ह-दम आया तो क्या हंगाम-ए-शाम आया तो क्या

सुब्ह-दम आया तो क्या हंगाम-ए-शाम आया तो क्या

तू मिरी नाकामियों के बा'द काम आया तो क्या

इल्तिफ़ात-ए-अव्वलीं की बात ही कुछ और है

मुझ तक उन की बज़्म में अब दौर-ए-जाम आया तो क्या

ताक़त-ए-नज़्ज़ारा जब मिन्नत-पज़ीर-ए-होश हो

बहर-जल्वा फिर कोई बाला-ए-बाम आया तो क्या

शोरिश-ए-हंगामा-ए-मंसूर की तज्दीद है

क़त्ल को मेरे वो बा-ईं एहतिमाम आया तो क्या

अब कहाँ वो फ़स्ल-ए-गुल और अब कहाँ जोश-ए-बहार

बहर-ए-गुल-गश्त-ए-चमन वो ख़ुश-ख़िराम आया तो क्या

ऐ हुजूम-ए-ना-मुरादी ऐ वुफ़ूर-ए-यास-ओ-ग़म

इश्क़ में कुछ लुत्फ़-ए-सई-ए-ना-तमाम आया तो क्या

जब गरेबाँ में हमारे तार तक बाक़ी नहीं

फिर अगर सुब्ह-ए-बहाराँ का पयाम आया तो क्या

आरज़ू-ए-दिल अभी तक तिश्ना-ए-तफ़्सीर है

तुझ को 'नजमी' शेवा-ए-हुस्न-ए-कलाम आया तो क्या

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