नहीं कुछ इंतिहा अफ़्सुर्दगी की
नहीं कुछ इंतिहा अफ़्सुर्दगी की
यही है रस्म शायद आशिक़ी की
लब-ए-लालीं पे ये लहरें हँसी की
यही डूबे न कश्ती ज़िंदगी की
ढले आँसू कि ये टूटे सितारे
सुकूत शब में याद आई किसी की
चमन में बूटा बूटा देखता है
अदाएँ इन की मस्ताना रवी की
बढ़ाए जा क़दम ज़ौक़ तलब में
शिकायत कर न इज्ज़-ओ-ख़स्तगी की
इसी का नाम शायद ज़िंदगी है
ख़ुशी की इक घड़ी तो इक ग़मी की
सुकून-ए-साहिल-ए-दरिया का अरमाँ
करो बातें न ये कम-हिम्मती की
मिला कर आँख फिर आँखें चुराना
अदा-ए-ख़ास है ये दिलबरी की
अता हो तो अता हो दर्द ऐसा
हो लज़्ज़त जिस में सोज़-ए-दाइमी की
अभी है नूर-ओ-ज़ुल्मत की कशाकश
अभी है दूर मंज़िल आगही की
हयात-ए-चंद-रोज़ा अपनी 'नजमी'
है तस्वीर-ए-मुजस्सम बेबसी की
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