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मुझे दैर भी हो क्यूँ कर न हरम की तरह प्यारा - अमजद नजमी कविता - Darsaal

मुझे दैर भी हो क्यूँ कर न हरम की तरह प्यारा

मुझे दैर भी हो क्यूँ कर न हरम की तरह प्यारा

तू यहाँ भी जल्वा-आरा तू वहाँ भी जल्वा-आरा

है अजीब ये तमाशा है अजीब ये नज़ारा

मिरी आहों का शरारा मिरे आँसुओं का धारा

वो पयाम-ए-शाम-ए-ग़म हो कि नवेद-ए-सुब्ह-ए-इशरत

मुझे ये भी है गवारा मुझे वो भी है गवारा

यूँही मुझ को डूबने दो इन्हीं मौज-हा-ए-ग़म में

कि मुहीत-ए-ग़म का शायद अभी दूर है किनारा

न फ़रोग़-ए-रू-ए-ताबाँ न निगाह-ए-नूर-अफ़्शाँ

मिरे इज़्तिराब-ए-दिल से मिरा राज़ आश्कारा

कोई क्या समझ सकेगा ये है फ़ैज़-ए-इश्क़ जिस ने

मुझे इस तरह बिगाड़ा मुझे इस तरह सँवारा

कोई चीज़ भी है क़िस्मत कोई शय भी है मुक़द्दर

कि मैं अपनी कोशिशों में यहाँ बार-बार हारा

ये हुजूम-ए-ना-उमीदी ये वुफ़ूर-ए-ना-मुरादी

हूँ अजब मुसीबतों में मैं मुसीबतों का मारा

मुझे इल्म इस का क्या था मुझे क्या ख़बर थी 'नजमी'

कि मुझी को फूँक देगा मिरे इश्क़ का शरारा

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