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कितना मुख़्तसर है ये ज़िंदगी का अफ़्साना - अमजद नजमी कविता - Darsaal

कितना मुख़्तसर है ये ज़िंदगी का अफ़्साना

कितना मुख़्तसर है ये ज़िंदगी का अफ़्साना

एक गाम-ए-मर्दाना एक रक़्स-ए-मस्ताना

तू ही एक शाकी है ज़ौक़-ए-तिश्ना-कामी का

ग़र्क़-ए-मौज-ए-सहबा है जबकि सारा मय-ख़ाना

बस यही है ले दे के दूरी-ए-रह-ए-मंज़िल

दो क़दम दिलेराना दो क़दम शिताबाना

हक़ तुझे है क्या हासिल ज़ेर-ए-चर्ख़ जीने का

हादसात-ए-आलम से तू अगर है बेगाना

दिल नहीं वो सीने में एक संग-ए-ख़ारा है

हो न जिस में पोशीदा आह-ए-दर्द-मंदाना

ये भी एक धोका है दीदा-ए-ग़लत-बीं का

वर्ना कौन दीवाना और कौन फ़रज़ाना

गाह गाह लड़ता रह अक़्ल-ए-मस्लहत-बीं से

गाह गाह लेता जा हाथ में भी पैमाना

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