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जो पूछते हैं कि ये इश्क़-ओ-आशिक़ी क्या है - अमजद नजमी कविता - Darsaal

जो पूछते हैं कि ये इश्क़-ओ-आशिक़ी क्या है

जो पूछते हैं कि ये इश्क़-ओ-आशिक़ी क्या है

वो जानते नहीं मक़्सूद-ए-ज़िंदगी क्या है

ज़मीर-ए-पाक ख़याल-ए-बुलंद ज़ौक़-ए-लतीफ़

बस और इस के सिवा जौहर-ए-ख़ुदी क्या है

वफ़ा की आड़ में क्या क्या हुई जफ़ा हम पर

जो दोस्ती यही ठहरी तो दुश्मनी क्या है

बजा है फ़र्त-ए-जुनूँ ने हमें किया रुस्वा

जमाल-ए-यार में आख़िर ये दिलकशी क्या है

वुफ़ूर-ए-शौक़ की मायूसियाँ अरे तौबा

दिल-ए-तबाह में अब आरज़ू रही क्या है

अगर न जुर्म-ए-मोहब्बत की ये सज़ा होती

तो बात बात पे हम से ये बे-रुख़ी क्या है

न समझो तुम मिरी अर्ज़-ए-नियाज़ को शिकवा

मैं जानता हूँ तक़ाज़ा-ए-बंदगी क्या है

अता किया था जो ज़ौक़-ए-नुमूद उस दिल को

तो हर क़दम पे ये रंग-ए-शिकस्तगी क्या है

गुरेज़ क्या मैं करूँ नासेहो की सोहबत से

जहाँ न कुछ हो ये सोहबत वहाँ बुरी क्या है

वफ़ा से और न तर्क-ए-वफ़ा से आप हैं ख़ुश

मुझे बताइए फिर आप की ख़ुशी क्या है

फ़रेब-ए-हस्ती-ए-मौहूम खा रहा हूँ हनूज़

मुझे ख़बर है हक़ीक़त यहाँ मिरी क्या है

जो गामज़न हैं सर-ए-जादा-ए-तलब 'नजमी'

वो जानते नहीं दुनिया में बेबसी क्या है

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