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जब कोई लेता है मेरे सामने नाम-ए-ग़ज़ल - अमजद नजमी कविता - Darsaal

जब कोई लेता है मेरे सामने नाम-ए-ग़ज़ल

जब कोई लेता है मेरे सामने नाम-ए-ग़ज़ल

याद आता है मुझे इक नाज़ुक-अंदाम-ए-ग़ज़ल

उस हरीम-ए-नाज़ उस ख़लवत-सरा-ए-राज़ में

बारहा जज़्बात ने बाँधा है एहराम-ए-ग़ज़ल

एक रश्क-ए-माह का मैं कर रहा हूँ तज़्किरा

आसमाँ से क्यूँ न हो ऊँचा मिरा बाम-ए-ग़ज़ल

मय-कदा भी गूँज उट्ठा शोर-ए-नोशा-नोश से

किस क़दर है कैफ़-आवर ये मिरा जाम-ए-ग़ज़ल

नौ-ब-नौ ताज़ा-ब-ताज़ा जलवा-ए-शादाब-ए-हुस्न

कर सके किस तरह आख़िर कोई इत्माम-ए-ग़ज़ल

अक्स-ए-ज़न हो जिस के दिल में परतव-ए-रंगीन-ए-यार

कौन कह सकता है 'नजमी' उस को नाकाम-ए-ग़ज़ल

देखते हैं गोशा-ए-चश्म-ए-हया से वो मुझे

मिल रहा है आज 'नजमी' मुझ को इनआ'म-ए-ग़ज़ल

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