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समुंदर आसमान और मैं - अमजद इस्लाम अमजद कविता - Darsaal

समुंदर आसमान और मैं

खुलीं जो आँखें तो सर पे नीला फ़लक तना था

चहार-जानिब सियाह पानी की तुंद मौजों का ग़लग़ला था

हवाएँ चीख़ों को और कराहों को ले के चलती थीं और मिट्टी

की ज़र्द ख़ुश्बू में मौत-मौसम का ज़ाइक़ा था

नज़र मनाज़िर में डूब कर भी मिसाल-ए-शीशा तही थी यानी

गुल-ए-तमाशा नहीं खिला था

हिरास जज़्बों की रहगुज़र में दिल-ए-तअज्जुब-ज़दा अकेला

ख़मोश तन्हा भटक रहा था

कि एक साए की नर्म आहट ने रास्तों का नसीब बदला

कोई तअल्लुक़ के चाँद लहजे में अपने-पन की अदा से बोला

''मिरे मुसाफ़िर उदास मत हो कि अहद-ए-फ़ुर्क़त ही ज़िंदगी है

ये फ़ासलों की ख़लीज राह-ए-विसाल है और तलब निगाहों की रौशनी है

तमाम चीज़ें तुम्हारे मेरे

बदन के रिश्तों का सिलसिला हैं

तुम्हें ख़बर है कि हम समुंदर

और आसमानों की इंतिहा हैं!''

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