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एक और मशवरा - अमजद इस्लाम अमजद कविता - Darsaal

एक और मशवरा

बस्तियाँ हों कैसी भी पस्तियाँ हों जैसी भी

हर तरह की ज़ुल्मत को रौशनी कहा जाए

ख़ाक डालें मंज़िल पर भूल जाएँ साहिल को

रुख़ जिधर हो पानी का उस तरफ़ बहा जाए

मुल्क बेच डालें या आबरू रखें गिरवी

जैसा हुक्म-ए-हाकिम हो उस तरह किया जाए

शोर में सदाओं के अजनबी हवाओं के

कौन सुनने वाला है? किस से अब कहा जाए!

गुफ़्तुगू पे पहरे हैं हर तरफ़ कटहरे हैं

रास्ते मुअय्यन हैं हर क़दम पे लिक्खा है

किस जगह पे रुकना है! किस तरफ़ चला जाए

दिल की बात कहने का इक यही तरीक़ा है

छुप के सारी दुनिया से अब घरों के कोनों में

आप ही सुना जाए आप ही कहा जाए

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