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दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से - अमजद इस्लाम अमजद कविता - Darsaal

दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से

दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से

लफ़्ज़ इज़हार की उलझन में पड़ा है कब से

ऐ कड़ी चुप के दर ओ बाम सजाने वाले

मुंतज़िर कोई सर-ए-कोह-ए-निदा है कब से

चाँद भी मेरी तरह हुस्न-शनासा निकला

उस की दीवार पे हैरान खड़ा है कब से

बात करता हूँ तो लफ़्ज़ों से महक आती है

कोई अन्फ़ास के पर्दे में छुपा है कब से

शोबदा-बाज़ी-ए-आईना-ए-एहसास न पूछ

हैरत-ए-चश्म वही शोख़ क़बा है कब से

देखिए ख़ून की बरसात कहाँ होती है

शहर पर छाई हुई सुर्ख़ घटा है कब से

कोर-चश्मों के लिए आईना-ख़ाना मालूम

वर्ना हर ज़र्रा तिरा अक्स-नुमा है कब से

खोज में किस की भरा शहर लगा है 'अमजद'

ढूँडती किस को सर-ए-दश्त हवा है कब से

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