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सख़ावत - अमजद हुसैन हाफिज कविता - Darsaal

सख़ावत

सख़ावत है नेकी का इक बहता दरिया

कि बच्चो बुख़ालत है ख़ुद जलता सहरा

सख़ावत में 'हातिम' का सानी नहीं है

सख़ावत अमर है ये फ़ानी नहीं है

सख़ावत अमीरों पे है फ़र्ज़ बच्चो

ग़रीबों का ये हक़ है तुम आज सुन लो

सख़ावत है ईमान का एक हिस्सा

है बरकत का ज़रिया सख़ावत का साया

सख़ी का है क्या मर्तबा तुम ये जानो

है जन्नत में उस की जगह तुम ये मानो

मियाँ होगी हर वक़्त रब की इनायत

किफ़ायत के हम-राह कर लो सख़ावत

ऐ 'हाफ़िज़' सख़ावत हर इक लम्हा करना

सख़ी बन के जीना सख़ी बन के मरना

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