सच कहने का आख़िर ये अंजाम हुआ

सच कहने का आख़िर ये अंजाम हुआ

सारी बस्ती में मैं ही बदनाम हुआ

क़त्ल का मुजरिम रिश्वत दे कर छूट गया

क़िस्मत देखो मेरे सर इल्ज़ाम हुआ

मेरे ग़म पर वो अक्सर हँस देता है

ये तो ग़म का ग़ैर मुनासिब दाम हुआ

ज़ख़्म यहाँ तो वैसे का वैसा ही है

तुम बतलाओ तुम को कुछ आराम हुआ

तन्हाई ने जब से क़ैद किया मुझ को

बाहर आने में तब से नाकाम हुआ

रोज़ मसाइल घेरे हैं मुझ को तो अब

सोच रहा हूँ गर्दिश-ए-अय्याम हुआ

अख़बारों में ख़ुद को पढ़ते सोचूँ हूँ

'मीत' यहाँ पर मेरा भी कुछ नाम हुआ

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