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एहसास - अमित गुप्ता कविता - Darsaal

एहसास

एहसास की महँगाई बहुत बढ़ गई है

आज कल कोई नज़्में ख़रीदने नहिं आता

तुम्हारे सिरहाने मेरे हाथों की लकीरें रक्खी हैं

यक़ीन नहीं तो टटोल कर देख लेना

ये वक़्त की ही गुस्ताख़ी है जो गुज़रने से कभी बाज़ नहीं आता

अगर मैं ठहरा हुआ न होता तो न जाने वक़्त कैसे गुज़रता

इस ख़ाली ऐशट्रे में तेरे नाम वाले एहसास को

कश मार कर बुझा दिया है हम ने

तुम्हारे इश्क़ के माथे पर ये कैसी झुर्रियाँ पड़ गई हैं

बुढ़ापे के अलावा और क्या हासिल हुआ

एक बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा सूर्यास्त देख रहा था

कुछ लोगों के न घर में आईना होता है और न ज़िंदगी में

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