सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
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वस्ल में बिगड़े बने यार के अक्सर गेसू
गर यही है पास-ए-आदाब-ए-सुकूत
कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
हम ने पाला मुद्दतों पहलू में हम कोई नहीं
गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते
ग़ैब से सहरा-नवरदों का मुदावा हो गया
इक आफ़त-ए-जाँ है जो मुदावा मिरे दिल का
तड़पती देखता हूँ जब कोई शय
बढ़ गई मय पीने से दिल की तमन्ना और भी
चाहता हूँ पहले ख़ुद-बीनी से मौत आए मुझे
आस क्या अब तो उमीद-ए-नाउमीदी भी नहीं
फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ