अहद के बअ'द लिए बोसे दहन के इतने
कि लब-ए-ज़ूद-पशीमाँ को मुकरने न दिया
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ग़ैब से सहरा-नवरदों का मुदावा हो गया
फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ
गर यही है पास-ए-आदाब-ए-सुकूत
बस कि थी रोने की आदत वस्ल में भी यार से
कीजिए ऐसा जहाँ पैदा जहाँ कोई न हो
ज़माने से निराला है उरूस-ए-फ़िक्र का जौबन
चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा
गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते
वस्ल में बिगड़े बने यार के अक्सर गेसू
कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
कल मिरा था आज वो बुत ग़ैर का होने लगा