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थक गए तुम हसरत-ए-ज़ौक़-ए-शहादत कम नहीं - अमीरुल्लाह तस्लीम कविता - Darsaal

थक गए तुम हसरत-ए-ज़ौक़-ए-शहादत कम नहीं

थक गए तुम हसरत-ए-ज़ौक़-ए-शहादत कम नहीं

मुझ से दम ले लो अगर तेग़-ए-सितम में दम नहीं

दर्दमंदान-ए-अज़ल रखते नहीं दरमाँ का ग़म

सीना-ए-सद-चाक गुल मिन्नत-कश-ए-मरहम नहीं

रोज़ मरते हैं हज़ारों देख कर नैरंग-ए-हुस्न

गर यही आलम तुम्हारा है तो ये आलम नहीं

मर मिटे हम इश्क़ के शोहरे वही हैं चार सू

शोर-ए-रुस्वाई पस-ए-मुर्दन भी अपना कम नहीं

नाला-ए-आतिश-फ़िशाँ यूँ ही अगर है औज पर

तू नहीं ऐ आसमान-ए-फ़ित्नागर या हम नहीं

बे-सबाती पर बहार-ए-बाग़ की रोता है चर्ख़

रू-ए-गुल पर क़तरा-हा-ए-अश्क हैं शबनम नहीं

ख़ुश हैं मेरे मरने से 'तस्लीम' ख़्वेश ओ अक़रिबा

ख़ाना-ए-शादी है गोया ख़ाना-ए-मातम नहीं

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