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क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वाइ'ज़ - अमीरुल्लाह तस्लीम कविता - Darsaal

क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वाइ'ज़

क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वाइ'ज़

कौन सुनता है तिरी हर्ज़ा-बयानी वाइ'ज़

दफ़्तर-ए-वा'ज़ के नुक़्ते भी न होंगे इतने

जितने हैं दिल में मिरे दाग़-ए-निहानी वाइ'ज़

सच सही जन्नत-ओ-दोज़ख़ का फ़साना लेकिन

किस तरह मान लूँ मैं तेरी ज़बानी वाइ'ज़

बे-वज़ू पा-ए-ख़ुम-ए-बादा को छू लेता है

ख़ाक आती है तुझे मर्तबा-दानी वाइ'ज़

नर्म भी दिल सुख़न-ए-गर्म से अब तक न हुआ

देख ली हम ने तिरी शो'ला-बयानी वाइ'ज़

नेक-ओ-बद ख़ूब समझता हूँ करूँ क्या कि अभी

सुनने देता नहीं आशोब-ए-जवानी वाइ'ज़

रिंदी-ओ-ज़ोहद रियाई में हैं दोनों यकता

मिस्ल मेरा है न तेरा कोई सानी वाइ'ज़

ये ख़राबात है जा ख़ैर से अपने घर को

मुँह की खुलवाए न फिर तेज़-ज़बानी वाइ'ज़

आज समझा गई क्या तुझ को इबादत तेरी

न रहा मशग़ला-ए-अश्क-फ़िशानी वाइ'ज़

इस क़दर है जो दम-ए-नज़्अ' हवस दुनिया की

साथ ले जाएगा क्या आलम-ए-फ़ानी वाइ'ज़

रिंद हूँ दे मुझे जाम-ए-मय-ए-अतहर की ख़बर

तुझ को कौसर का मुबारक रहे पानी वाइ'ज़

ज़र्द हो जाता है सुन कर रुख़-ए-गुलगूँ मेरा

तिरी तक़रीर है या बाद-ए-ख़िज़ानी वाइ'ज़

नक़्शा फ़िरदौस का बातों में दिखा देता है

ये ज़बाँ है तिरी या ख़ामा-ए-मानी वाइ'ज़

चलते फिरते नहीं बे-वज्ह ये रोना मेरा

साथ फिरता हूँ लिए ग़म की निशानी वाइ'ज़

क्या रुके ख़ामा-ए-'तस्लीम' दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न

तब्अ में आज है दरिया की रवानी वाइ'ज़

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