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कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई - अमीरुल्लाह तस्लीम कविता - Darsaal

कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई

कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई

जो न होनी थी वो ग़ैरों की बदौलत हो गई

रोज़ आती है मगर इक रोज़ भी आती नहीं

ऐ अजल तू भी मिरे हक़ में क़यामत हो गई

मेरे उन के अब कहाँ पहला तपाक-ए-आ'शिक़ी

चलते फिरते मिल गए साहब-सलामत हो गई

समझे थे दश्त-ए-जुनूँ में कुछ बहल जाएगा दिल

देख कर सुनसान जंगल दूनी वहशत हो गई

शक्ल दिखलाती नहीं शीशे से आ के जाम में

दुख़्तर-ए-रज़ तू तो अभी से बे-मुरव्वत हो गई

मर्ग-ए-आशिक़ का अबस है सोग हर दम इस क़दर

छुट गया वो क़ैद-ए-ग़म से तुम को फ़ुर्सत हो गई

फ़स्ल-ए-गुल आई बढ़े जोश-ए-जुनूँ के वलवले

फिर वही 'तस्लीम' अपनी ग़ैर हालत हो गई

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