अक़्ल थक कर लौट आई जादा-ए-आलाम से
अब जुनूँ आग़ाज़ फ़रमाएगा इस अंजाम से
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अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
ज़ाहिरन तोड़ लिया हम ने बुतों से रिश्ता
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ