आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
आदमी मोहब्बत में सब को भूल जाता है
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हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
ओस का नन्हा सा क़तरा हूँ फूलों में तुल जाऊँगा
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
दीवानों को अहल-ए-ख़िरद ने चौराहे पर सूली दी है
सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
ख़्वाब जो बिखर गए
दर्द बढ़ता गया जितने दरमाँ किए प्यास बढ़ती गई जितने आँसू पिए
सहरा सहरा ग़म के बगूले बस्ती बस्ती दर्द की आग