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थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी - आमिर उस्मानी कविता - Darsaal

थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी

थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी

तिरे हुस्न के तसद्दुक़ मुझे रौशनी दिखा दी

तिरा ग़म समा गया है मिरे दिल की धड़कनों में

कोई ऐश जब भी आया मिरे दिल ने बद-दुआ दी

जो ज़रा भी नींद आई कभी अहल-ए-कारवाँ को

वही बन गए लुटेरे जो बने हुए थे हादी

वो कभी न बन सकी है वो कभी न बन सकेगी

किसी दिल की जो इमारत तिरी बे-रुख़ी ने ढा दी

ये कभी कभी इनायत है ब-मंज़िल-ए-सियासत

कि जफ़ाएँ सहने वाला कहीं हो न जाए आदी

हमें आख़िरत में 'आमिर' वही उम्र काम आई

जिसे कह रही थी दुनिया ग़म-ए-इश्क़ में गँवा दी

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