उलझे हुए साँसों की घुटन कैसे दिखाऊँ
अंदर जो हैं ज़ख़्मों के चमन कैसे दिखाऊँ
यूँ शीशा-ए-दिल संग-ए-हवादिस ने किया चूर
नस नस में है किरचों की चुभन कैसे दिखाऊँ
Mir Taqi Mir
Gulzar
Allama Iqbal
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Parveen Shakir
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न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
सहरा सहरा ग़म के बगूले बस्ती बस्ती दर्द की आग
ग़म-ए-बेहद में किस को ज़ब्त का मक़्दूर होता है
क्यूँ हुए क़त्ल हम पर ये इल्ज़ाम है क़त्ल जिस ने किया है वही मुद्दई
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
रफ़्ता रफ़्ता सब साथी साथ छोड़ आए थे
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
उस के वादों से इतना तो साबित हुआ उस को थोड़ा सा पास-ए-तअल्लुक़ तो है
इल्तिजा