सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
क़ुसूर ये था कि जीने के ख़्वाब देखे थे
किसी ने रेत के तूफ़ाँ में ला के छोड़ दिया
ये जुर्म था कि वफ़ा के सराब देखे थे
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थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
रफ़्ता रफ़्ता सब साथी साथ छोड़ आए थे
ये पुर-फ़रेब सितारे ये बिजलियों के चराग़
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
दीवानों को अहल-ए-ख़िरद ने चौराहे पर सूली दी है
रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
बाक़ी ही क्या रहा है तुझे माँगने के बाद
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है