सहरा सहरा ग़म के बगूले बस्ती बस्ती दर्द की आग
जीने का माहौल नहीं है लेकिन फिर भी जीते हैं
साग़र साग़र ज़हर घुला है क़तरा क़तरा क़ातिल है
ये सब कुछ मालूम है लेकिन प्यास लगी है पीते हैं
Habib Jalib
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आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
ज़ाहिरन तोड़ लिया हम ने बुतों से रिश्ता
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
ये पुर-फ़रेब सितारे ये बिजलियों के चराग़
ग़म-ए-बेहद में किस को ज़ब्त का मक़्दूर होता है
क्यूँ हुए क़त्ल हम पर ये इल्ज़ाम है क़त्ल जिस ने किया है वही मुद्दई
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
मिरी ज़िंदगी का हासिल तिरे ग़म की पासदारी
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
सुर्ख़ सितारा
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के