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मुझ को ख़ामोशी-ए-हालात से डर लगता है - आमिर रियाज़ कविता - Darsaal

मुझ को ख़ामोशी-ए-हालात से डर लगता है

मुझ को ख़ामोशी-ए-हालात से डर लगता है

ये मुझे दौर-ए-सियासत का असर लगता है

बे-अमल मैं था मगर रब ने मुझे बख़्श दिया

ये मिरी माँ की दुआओं का असर लगता है

जब से वो दूर हुआ है मिरी इन आँखों से

दिल मिरा दिल नहीं उजड़ा सा नगर लगता है

जब से देखा है तुझे खोया हुआ रहता हूँ

ये तिरी शोख़ निगाहों का असर लगता है

हर तरफ़ दर्द है तारीकी उदासी है बहुत

किस क़दर सख़्त ये साँसों का सफ़र लगता है

''हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं''

ये मुझे मेरे गुनाहों का असर लगता है

एक नक़्श ऐसा बनाया है तिरी यादों ने

ज़ेहन से रूह तलक तेरा ही घर लगता है

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