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तअ'ल्लुक़ात के सारे दिए बुझे हुए थे - आमिर नज़र कविता - Darsaal

तअ'ल्लुक़ात के सारे दिए बुझे हुए थे

तअ'ल्लुक़ात के सारे दिए बुझे हुए थे

अजीब हाल था जब उन से राब्ते हुए थे

हमारे अक्स के पहलू से हो गए ख़ाइफ़

हमारे सामने जो ख़ुद के आईने हुए थे

निगाह रात का ज़ीना तलाश करती रही

सुलगते ख़्वाब किसी ताक़ पर रखे हुए थे

ख़ुशी मिली तो मसाफ़त का ग़म भुला बैठे

गो राह-ए-ज़ीस्त पे यूँ कितने आबले हुए थे

वो तीरगी का लहू था कि चाँदनी का सुरूर

सहर के नाम कई ज़ाइक़े लिखे हुए थे

मिरे वजूद को तक़्सीम कर दिया सब ने

ज़मीं के जिस्म पे कुछ ऐसे सानेहे हुए थे

बराह-ए-रास्त किसी का निशाँ नहीं 'आमिर'

सो फ़लसफ़े दर-ओ-दीवार पर सजे हुए थे

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