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कुछ सुलगते हुए ख़्वाबों की फ़रावानी है - आमिर नज़र कविता - Darsaal

कुछ सुलगते हुए ख़्वाबों की फ़रावानी है

कुछ सुलगते हुए ख़्वाबों की फ़रावानी है

शहर-ए-एहसास में आइंदा की ताबानी है

साअ'त-ए-शाम का दरवाज़ा पिघल जाएगा

चश्म-ए-उम्मीद में वो शो'ला-ए-इम्कानी है

जिस्म पर अपने भी पोशाक सँभाले रखिए

सीना-ए-दश्त पे उतरी शब-ए-उर्यानी है

कब तलक टूटती साँसों पे सदाएँ रखूँ

हल्का-ए-ज़ीस्त की ज़ंजीर भी लायानी है

अब कहाँ जा के ये ज़रदाब नज़र ठहरेगी

दूर तक फैली हुई सरहद-ए-वीरानी है

लौह-ए-बे-रंग पे तो अक्स-ए-ख़ुदी रौशन है

पैकर-ए-ख़ाक के चेहरे पे परेशानी है

तर-ब-तर हो गए हालात के चेहरे 'आमिर'

अहल-ए-दामान-ए-ख़िरद पर बड़ी हैरानी है

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