ख़ामोशियों को आलम-ए-अस्वात पर कभी
ख़ामोशियों को आलम-ए-अस्वात पर कभी
फेंका गया था शोर-ए-हिकायात पर कभी
क्यूँ मेरे इख़्तियार से बाहर निकल गईं
आँखें थीं अपनी अक्स-ए-मज़ाफ़ात पर कभी
और उस के बा'द दीद का मंज़र सिमट गया
ज़ाहिर हुआ था शो'ला ख़राबात पर कभी
तू मेरी दस्तरस में रहेगा यक़ीन है
दुनिया नहीं सही तो समावात पर कभी
अक्स-ए-ख़ुदी का जामा पहन कर निकल गया
उभरा जो नक़्श रू-ए-ख़यालात पर कभी
'आमिर' अब इंतिशार की परछाइयाँ तमाम
था लम्हा-ए-सुकून मकानात पर कभी
(782) Peoples Rate This