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जबीं को चैन कहाँ ज़ेर-ए-लब दुआ है बस - आमिर नज़र कविता - Darsaal

जबीं को चैन कहाँ ज़ेर-ए-लब दुआ है बस

जबीं को चैन कहाँ ज़ेर-ए-लब दुआ है बस

तलब की चाह का इक तू ही आसरा है बस

मकीन-ए-ख़ाक फ़क़त शोर-ओ-शर में डूबे हैं

हयात क्या है कि आराइश-ए-क़ज़ा है बस

हिसार-ए-अक्स से निकलें तो अपनी सोचें हम

अभी तो पेश-ए-नज़र रक़्स-ए-आइना है बस

शुऊर कहता है उस को उतारना होगा

उरूस-ए-वक़्त पे पैराहन-ए-अना है बस

ये अहल-ए-फ़िक्र से कह दो कि वुसअत-ए-इम्काँ

अभी भी पा-ए-तसव्वुर का नक़्श-ए-पा है बस

ख़िरद के बस में नहीं दूसरे का ग़म 'आमिर'

ग़लत समझ है जुनूँ एक वलवला है बस

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