जबीं को चैन कहाँ ज़ेर-ए-लब दुआ है बस
जबीं को चैन कहाँ ज़ेर-ए-लब दुआ है बस
तलब की चाह का इक तू ही आसरा है बस
मकीन-ए-ख़ाक फ़क़त शोर-ओ-शर में डूबे हैं
हयात क्या है कि आराइश-ए-क़ज़ा है बस
हिसार-ए-अक्स से निकलें तो अपनी सोचें हम
अभी तो पेश-ए-नज़र रक़्स-ए-आइना है बस
शुऊर कहता है उस को उतारना होगा
उरूस-ए-वक़्त पे पैराहन-ए-अना है बस
ये अहल-ए-फ़िक्र से कह दो कि वुसअत-ए-इम्काँ
अभी भी पा-ए-तसव्वुर का नक़्श-ए-पा है बस
ख़िरद के बस में नहीं दूसरे का ग़म 'आमिर'
ग़लत समझ है जुनूँ एक वलवला है बस
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