फ़िशार-ए-तीरह-शबी से सहर निकल आए
फ़िशार-ए-तीरह-शबी से सहर निकल आए
सियाह रेत पे कोई शजर निकल आए
मैं अपनी ज़ात की दीवार पर हूँ महव-ए-क़लम
भले ही सूरत-ए-मेहराब-ओ-दर निकल आए
शिकस्ता ख़्वाब के रेज़े ज़मीन-ए-वहशत से
बरहनगी की क़बा ओढ़ कर निकल आए
मिरे गुमान के दीपक न जल सके शब-भर
पस-ए-यक़ीं जो जले बेशतर निकल आए
निगाह-ए-शीशा-ए-हसरत में क़ैद हो जाते
ये और बात कि हम वक़्त पर निकल आए
मैं संग-ए-यास पे तहरीर कर रहा था कुछ
कि लफ़्ज़ चंद बड़े मो'तबर निकल आए
सियाह रात की तस्वीर पर शिकन से अभी
अजब नहीं है कि 'आमिर' नज़र निकल आए
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