दरून-ए-जिस्म की दीवार से उभरती है
दरून-ए-जिस्म की दीवार से उभरती है
कोई लकीर है जो टूटती बिखरती है
मैं इंतिशार की कुछ और तल्ख़ियाँ पी लूँ
ज़बान-ए-शहर नए ज़ाइक़ों से डरती है
फ़लक के दरमियाँ अपनी सदा करें महफ़ूज़
कि हर दरीचे पे आवाज़ जा के मरती है
कोई तो सरहद-ए-ख़ामोश तोड़ सकता था
सुकूत-ए-शाम यहाँ तह-ब-तह उतरती है
वो इक शुआ-ए-बरहना है शब के ज़ीने पर
सो मेरी आँख भी इस पर कहाँ ठहरती है
नवाह-ए-ज़ीस्त का सूरज तो ढल गया 'आमिर'
तमीज़-ए-ख़ाक मगर अब भी रक़्स करती है
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