बोसीदा सही ज़ेब-ए-क़बा तक नहीं आती
बोसीदा सही ज़ेब-ए-क़बा तक नहीं आती
बे-पैरहन-ए-जाँ को हया तक नहीं आती
आईना अजल का यूँ तह-ए-ख़ाक पड़ा है
मरक़द की फ़सीलों से ज़िया तक नहीं आती
गुम-कर्दा-ए-इदराक में पैवस्त जबीनें
दर-चश्म-ए-यक़ीं बू-ए-वफ़ा तक नहीं आती
सहरा की जबीनों पे हो शादाबी तो कैसे
इन शो'लों पे शबनम की रिदा तक नहीं आती
दिल रिफ़अत-ए-दस्तार की क़ामत पे मगन है
बे-ताबी-ए-मंज़िल कफ़-ए-पा तक नहीं आती
हंगामा-ए-औक़ात भी है रक़्स-ए-फ़ुसूँ भी
इम्कान की चौखट पे सदा तक नहीं आती
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