तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
चेहरों पे अपने वर्ना तो बरसों का ज़ंग था
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मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
ख़याल-ए-यार का सिक्का उछालने में गया
एक जहान-ए-ला-यानी ग़र्क़ाब हुआ
लहू जिगर का हुआ सर्फ़-ए-रंग-ए-दस्त-ए-हिना
न तो बे-करानी-ए-दिल रही न तो मद्द-ओ-जज़्र-ए-तलब रहा
रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
मीरास-ए-बे-बहा भी बचाई न जा सकी
ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को
फिर बदन में थकन की गर्द लिए
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था