रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था
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ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
फिर बदन में थकन की गर्द लिए
सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
निज़ाम-ए-बस्त-ओ-कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
ताब खो बैठा हर इक जौहर-ए-ख़ाकी मेरा
ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था
हैरान बहुत ताबिश-ए-हुस्न-दीगराँ थी
तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
तिरे ख़याल के जब शामियाने लगते हैं