फिर बदन में थकन की गर्द लिए
फिर लब-ए-जू-ए-बार हैं हम लोग
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एक जहान-ए-ला-यानी ग़र्क़ाब हुआ
ताब खो बैठा हर इक जौहर-ए-ख़ाकी मेरा
न तो बे-करानी-ए-दिल रही न तो मद्द-ओ-जज़्र-ए-तलब रहा
ख़याल-ए-यार का सिक्का उछालने में गया
तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था
तिरे ख़याल के जब शामियाने लगते हैं
ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं