मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
गोरे बदन पे उस के भी नीला निशान था
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ख़याल-ए-यार का सिक्का उछालने में गया
तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
मकाँ उजाड़ था और ला-मकाँ की ख़्वाहिश थी
गर्द-बाद-ए-शरार हैं हम लोग
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
ग़ज़लों से तज्सीम हुई तकमील हुई
ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को
ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था
ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
फिर बदन में थकन की गर्द लिए