मीरास-ए-बे-बहा भी बचाई न जा सकी
मीरास-ए-बे-बहा भी बचाई न जा सकी
इक ज़िल्लत-ए-वफ़ा थी उठाई न जा सकी
वादों की रात ऐसी घनी थी सियाह थी
क़िंदील-ए-ए'तिबार बुझाई न जा सकी
चाहा था तुम पे वारेंगे लफ़्ज़ों की काएनात
ये दौलत-ए-सुख़न भी कमाई न जा सकी
वो सहर था कि रंग भी बे-रंग थे तमाम
तस्वीर-ए-यार हम से बनाई न जा सकी
हम मदरसान-ए-इश्क़ के वो होनहार तिफ़्ल
हम से किताब-ए-अक़्ल उठाई न जा सकी
वो थरथरी थी जान-ए-सुख़न तेरे रू-ब-रू
तुझ पर कही ग़ज़ल भी सुनाई न जा सकी
(802) Peoples Rate This