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बजाए कोई शहनाई मुझे अच्छा नहीं लगता - आमिर अमीर कविता - Darsaal

बजाए कोई शहनाई मुझे अच्छा नहीं लगता

बजाए कोई शहनाई मुझे अच्छा नहीं लगता

मोहब्बत का तमाशाई मुझे अच्छा नहीं लगता

वो जब बिछड़े थे हम तो याद है गर्मी की छुट्टीयाँ थीं

तभी से माह जुलाई मुझे अच्छा नहीं लगता

वो शरमाती है इतना कि हमेशा उस की बातों का

क़रीबन एक चौथाई मुझे अच्छा नहीं लगता

न-जाने इतनी कड़वाहट कहाँ से आ गई मुझ में

करे जो मेरी अच्छाई मुझे अच्छा नहीं लगता

मिरे दुश्मन को इतनी फ़ौक़ियत तो है बहर-सूरत

कि तू है उस की हम-साई मुझे अच्छा नहीं लगता

न इतनी दाद दो जिस में मिरी आवाज़ दब जाए

करे जो यूँ पज़ीराई मुझे अच्छा नहीं लगता

तिरी ख़ातिर नज़र-अंदाज़ करता हूँ उसे वर्ना

वो जो है ना तिरा भाई मुझे अच्छा नहीं लगता

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