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रक़ीब-ए-जाँ नज़र का नूर हो जाए तो क्या कीजे - अमीता परसुराम 'मीता' कविता - Darsaal

रक़ीब-ए-जाँ नज़र का नूर हो जाए तो क्या कीजे

रक़ीब-ए-जाँ नज़र का नूर हो जाए तो क्या कीजे

ज़ियाँ दिल को अगर मंज़ूर हो जाए तो क्या कीजे

वफ़ा करने से वो मजबूर हो जाए तो क्या कीजे

मोहब्बत रूह का नासूर हो जाए तो क्या कीजे

वही चर्चे वही क़िस्से मिली रुस्वाइयाँ हम को

उन्ही क़िस्सों से वो मशहूर हो जाए तो क्या कीजे

ज़माने से गिला कैसा जब अपने जिस्म का साया

अंधेरे में हमीं से दूर हो जाए तो क्या कीजे

ख़ुदा को इतना चाहूँ तो ख़ुदा हो जाएगा राज़ी

मगर वो और भी मग़रूर हो जाए तो क्या कीजे

मुनव्वर जिस के दम से थीं हमारी ज़िंदगी 'मीता'

वही महताब गर मस्तूर हो जाए तो क्या कीजे

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