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खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक - अमीता परसुराम 'मीता' कविता - Darsaal

खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक

खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक

हम-सफ़र होने का तेरा भी इरादा कब था

दरगुज़र करती रही तेरी ख़ताएँ बरसों

मेरे जज़्बात ओ ख़यालात तू समझा कब था

मौज-दर-मौज भँवर खींच रहा था मुझ को

मेरी कश्ती के लिए कोई किनारा कब था

ज़ाहिरन साथ वो मेरे था मगर आँखों से

बद-गुमानी के नक़ाबों को उतारा कब था

तुझ को मालूम नहीं अपनी वफ़ाओं के एवज़

जान-ए-जाँ मैं ने जो चाहा था ज़ियादा कब था

दो किनारों को मिलाया था फ़क़त लहरों ने

हम अगर उस के न थे वो भी हमारा कब था

उस ने मेरी ही रिफ़ाक़त को बनाया मुल्ज़िम

मैं अगर भीड़ में थी वो भी अकेला कब था

वो तिरा अहद-ए-वफ़ा याद है अब तक 'मीता'

भूल बैठी हूँ मोहब्बत का ज़माना कब था

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