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हज़ारों मंज़िलें फिर भी मिरी मंज़िल है तू ही तू - अमीता परसुराम 'मीता' कविता - Darsaal

हज़ारों मंज़िलें फिर भी मिरी मंज़िल है तू ही तू

हज़ारों मंज़िलें फिर भी मिरी मंज़िल है तू ही तू

मोहब्बत के सफ़र का आख़िरी हासिल है तू ही तू

बला से कितने ही तूफ़ाँ उठे बहर-ए-मोहब्बत में

हर इक धड़कन ये कहती है मिरा साहिल है तू ही तू

मुझे मालूम है अंजाम क्या होगा मोहब्बत का

मसीहा तू ही तू है और मिरा क़ातिल है तू ही तू

किया इफ़्शा मोहब्बत को मिरी बेबाक नज़रों ने

ज़माने को ख़बर है मुझ से बस ग़ाफ़िल है तू ही तू

तिरे बख़्शे हुए रंगों से है पुर-नूर हर मंज़र

यक़ीनन बहर ओ बर की रूह में शामिल है तू ही तू

तुझी से गुफ़्तुगू हर दम तिरी ही जुस्तुजू हर दम

मिरी आसानियाँ तुझ से मिरी मुश्किल है तू ही तू

जिधर जाऊँ जिधर देखूँ तिरे क़िस्से तिरी बातें

सर-ए-महफ़िल है तू ही तू पस-ए-महमिल है तू ही तू

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