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किया करते हैं दिलदारी दिल-आज़ारी नहीं करते - अमीरुल इस्लाम हाशमी कविता - Darsaal

किया करते हैं दिलदारी दिल-आज़ारी नहीं करते

किया करते हैं दिलदारी दिल-आज़ारी नहीं करते

हँसाने के लिए हम बात बाज़ारी नहीं करते

मज़ाह-ओ-तंज़ में मलहूज़ रखते हैं मतानत को

कभी मजरूह हम करते नहीं लफ़्ज़ों की हुर्मत को

जो कम शादाब चेहरे हैं उन्हें शादाब करते हैं

जो कम-सिन हैं बहुत झुक कर उन्हें आदाब करते हैं

उजाले को उजाला रात को हम रात कहते हैं

सलीक़े से ब-अंदाज़-ए-दिगर हर बात कहते हैं

बढ़ा कर बात दुगुनी या कभी तिगुनी नहीं कहते

किसी कम-क़द हसीना को कभी ठिगनी नहीं कहते

किसी नाज़ुक बदन को हम कभी मोटी नहीं कहते

किसी मोटी से मोटी को डबल-रोटी नहीं कहते

जो मिस्गाइड करे उस को तो मिस्गाइड नहीं करते

भलाई को किसी भी तौर सब साइड नहीं करते

बनाते हैं हर इक माहौल को हम पुर-फ़ज़ा यारो

क़बा-ए-गुल को छूते हैं ब-अंदाज़-ए-सबा यारो

किसी मिस से जो नादानी में कुछ मिस्टेक हो जाए

दुआ करते हैं नादानी भी फाल-ए-नेक हो जाए

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