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सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से - अमीर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से

सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से

जी रहा है कौन मेरे नाम से

शहर में सच बोलता फिरता हूँ मैं

लोग ख़ाइफ़ हैं मिरे अंजाम से

रात भर जागेगा चौकी-दार एक

और सब सो जाएँगे आराम से

सौ बरस का हो गया मेरा मज़ार

अब नवाज़ा जाऊँ गा इनआम से

साथ लाऊँगा थकन बे-कार की

घर से बाहर जा रहा हूँ काम से

नाम ले उस का सफ़र आग़ाज़ कर

दूर रख दिल को ज़रा औहाम से

ज़िंदगी की दौड़ में पीछे न था

रह गया वो सिर्फ़ दो इक गाम से

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